Wednesday, July 20, 2011

मन कुछ बावरा सा रहता है!

ना जाने ऐसा क्यूँ होता है,
मन कुछ बावरा सा रहता है,

कभी आने वाले कल के अक्स को आईने में देखता है,
तो कभी गुजरे लम्हों की पर्चायिओं के पीछे भागता है,
गुम रहता है कहीं- आज से वाकिफ,
सुन रहता है ये उन पलों में, जिनमे ये अभी बहता है,
और फिर करता है उस गुजरे वक़्त का इंतज़ार,
जो लहरों की तरह आया और बहा ले गाया- समय की रेत को,
ये दौर कुछ यूँ ही दोहराता है,
जो चला गया उसी की राह में पलके बिछाता है,

ना जाने ऐसा क्यूँ होता है,
मन कुछ बावरा सा रहता है!